विश्व पर्यावरण दिवस 2010 के अवसर पर प्रायोजित प्रतियोगिता मे सहभगिता
पन्छी नदिया पवन के झोंके , कोई सरहद ना इन्हें रोके.
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सोंचो, हमने और तुमने क्या पाया इंसान होके.
हम यह कह सकते हैं, हमने पाया है, चिप्स में छिपे मधुर संगीत, कंप्यूटर के पटल पर प्राकृतिक दृश्य, वातानुकूलित कमरे की शीतल हवा.
अब हमें ज़रूरत नही है खुली हवा में सांस लेने की, चिड़ियों की चहचहाहट सुनने की, अलार्म बेल जो है. ज़रूरत नही है बहती हुई सरिता में मीन विहार देखने की, घर में अक्वारियम (मीनशाला) जो है. हमने प्रकृति को क़ैद कर रक्खा है. प्रकृति मचल रही है. कभी कभी क्रुद्ध हो जाती है, जिसका भयंकर परिणाम हमे देखने-सुनने को मिल जाता है, जैसे कोशी का कहर, सूनामी की वेदना, भीषण गर्मी की तपिश, हिमखंडों पर ज्वालामुखी, नभ मे धुयें के बादल.
आख़िर हम क्या सीख रहे हैं इन भयंकर पर्यावरण परिवर्तन से?
हमारे पूर्वज,ऋषि मुनि प्रकृति के साथ जंगलों में रहकर सैंकडो हज़ारों साल तक जिंदा और जवानरहते थे.
हमें भी सभी जैव पदार्थों का संरक्षण कर प्राकृतिक संतुलन बनाकर चलना होगा तभी हमारी पृथ्वी और हमारा भविष्य उज्ज्वल होगा.
जब गंभीर विपत्ति आती है तब सभी प्राणी अपनी जान बचाने के लिए एक साथ रहने को मजबूर हो जाते है. यह दृश्य बाढ् और भीषण गर्मी में सभी देख चुके हैं.
तभी तो कवि बिहारीलाल ने कहा है,
कहलाने एकत बसत अहि मयूर मृग बाघ, जगत तपोवन सो कियो दीरघ दाघ निदाघ.
प्रस्तुति-
जवाहर लाल सिंह
Saturday, June 5, 2010
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